कदा वा राधायाः पदकमलमायोज्य हृदये दयेशं निःशेषं नियतमिह जह्यामुपविधिम् । कदा वा गोविन्दः सकलसुखदः प्रेम करणाद अनन्ये धन्ये वै स्वयमुपनयेत स्मरकलाम् ॥ – श्री हित हरिवंश महाप्रभु, श्री राधा सुधा निधि (191)
तुम हौ परम प्रवीन ,प्राणवल्लभ श्रीराधा बिसरिहौ न बिसारिहौ, यही दान मोहि देहु श्रीहरिवंश के लाड़िले , मोहि अपनी करि लेहु किसैहु पापी क्यों न होइ , श्रीहरिवंश नाम जो लेइ अलक लड़ैती रीझिके , महल खवासी देइ । महिमा तेरी कहा कहूँ, श्रीहरिवंश दयाल । तेरे द्वारे बटत है , सहज लाड़िली – लाल
भगवद गीता: अध्याय 3, श्लोक 32 ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् | सर्वज्ञानविमूढ़ान्विद्धि नष्टान्चेतस लेकिन जो लोग मेरी शिक्षाओं में दोष पाते हैं, वे ज्ञान से रहित और विवेक से रहित होकर इन सिद्धांतों की उपेक्षा करते हैं और अपना विनाश करते हैं। श्री कृष्ण द्वारा प्रस्तुत उपदेश हमारे शाश्वत कल्याण के लिए उत्तम हैं। हालाँकि, हमारी भौतिक बुद्धि में असंख्य खामियाँ हैं, और इसलिए हम हमेशा उनकी शिक्षाओं की उत्कृष्टता को समझने या उनके लाभों की सराहना करने में सक्षम नहीं होते हैं। जहां भी हमारी बुद्धि समझने में असमर्थ हो, वहां उपदेशों में दोष निकालने की अपेक्षा हमें अपनी बुद्धि को समर्पित कर देना चाहिए, ऐसा श्री कृष्ण ने कहा है।
Bhagavad Gita: Chapter 3, Verse 33 सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि । प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति बुद्धिमान लोग भी अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करते हैं क्योंकि सभी जीव अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति से प्रेरित होते हैं, किसी को दमन से क्या प्राप्त हो सकता है। जिस स्थिति में हम हैं वहीं से हमें आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर होना आरम्भ करना चाहिए और ऐसा करने के लिए हमें सर्वप्रथम अपनी वर्तमान मनोदशा को स्वीकार करना होगा और तत्पश्चात इसे सुधारना होगा।
Bhagavad Gita: Chapter 3, Verse 37 श्रीभगवानुवाच। काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः । महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् परमात्मा श्रीकृष्ण कहते हैं-अकेली काम वासना जो रजोगुण के सम्पर्क में आने से उत्पन्न होती है और बाद में क्रोध का रूप धारण कर लेती है, इसे पाप के रूप में संसार का सर्वभक्षी शत्रु समझो। श्रीकृष्ण ने सांसारिक सुखों के भोग की लालसा को पाप के रूप में चिह्नित किया है क्योंकि प्राण घातक प्रलोभन हमारे भीतर छिपा रहता है। रजोगुण आत्मा को भ्रमित कर उसे यह विश्वास दिलाता है कि सांसारिक विषय भोगों से ही तृप्ति प्राप्त होगी। इसलिए किसी भी मनुष्य में इन्हें प्राप्त करने की कामना उत्पन्न होती है। जब कामना की पूर्ति होती है तब इससे लोभ उत्पन्न होता है और इसकी संतुष्टि न होने पर क्रोध उत्पन्न होता है। कामना, लोभ और क्रोध इन तीनों विकारों से ग्रस्त होकर मनुष्य पाप करता है। लोभ कुछ नहीं है किन्तु यह कामनाओं को प्रबल करता है जबकि क्रोध कुण्ठित इच्छा है। इस प्रकार श्रीकृष्ण ने वासना या कामना को सभी बुराइयों की जड़ के रूप में चिह्नित किया है।
Bhagavad Gita: Chapter 3, Verse 34 इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ। तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ इन्द्रियों का इन्द्रिय विषयों के साथ स्वाभाविक रूप से राग और द्वेष होता है किन्तु मनुष्य को इनके वशीभूत नहीं होना चाहिए क्योंकि ये आत्म कल्याण के मार्ग के अवरोधक और शत्रु हैं। इन्द्रियाँ अपने इन्द्रिय विषयों की ओर आकर्षित होती हैं और उनके आपसी सामन्जस्य से सुख और दुख की अनुभूति होती है। जिह्वा स्वादिष्ट व्यंजनों का स्वाद चखने की आदी होती है और कड़वा स्वाद उसे पसंद नहीं आता। मन बार-बार सुख और दुख से जुड़े विषयों का चिन्तन करता है। इन्द्रिय विषयों के सुख के अनुभव से आसक्ति और दुख के अनुभव से विरक्ति उत्पन्न होती है। श्रीकृष्ण अर्जुन को न तो आसक्ति और न ही विरक्ति के वशीभूत होने को कहते हैं। अपने सांसारिक कर्तव्यों का पालन करते हुए हमें अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। हमें न तो अनुकूल परिस्थितियों के लिए ललचाना चाहिए और न ही प्रतिकूल परिस्थितियों की उपेक्षा करनी चाहिए। जब हम मन और इन्द्रियों के रुचिकर और अरुचिकर दोनों विषयों की दासता से मुक्त हो जाते हैं तब हम अपनी अधम प्रकृति से ऊपर उठ जाते हैं और फिर हम अपने कर्त्तव्यों का निर्वाहन करते समय सुख और दुख दोनों में समभाव से रहते हैं। तब हम वास्तव में अपनी विशिष्ट प्रकृति से मुक्त होकर कार्य करते हैं।
Itra seva ❤️
श्रीराधावल्लभ लाड़िली। अति उदार सुकुमारी। ध्रुव तौ भुल्यौ और तें , तुम जिन देहू बिसारी तुम जिन देहू बिसारी, ठौर मोकौ कहु नाही प्रिय रंग भरी कटाक्ष , नैक चितवहु मों माही बढ़े प्रीति की रीति , बीच कछु होय न बाधा
Bhagavad Gita: Chapter 3, Verse 35 श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः अपने नियत कार्यों को दोष युक्त सम्पन्न करना अन्य के निश्चित कार्यों को समुचित ढंग से करने से कहीं अधिक श्रेष्ठ होता है। वास्तव में अपने कर्तव्य का पालन करते हुए मरना दूसरों के जोखिम से युक्त भयावह मार्ग का अनुसरण करने से श्रेयस्कर होता है। धर्म शब्द की रचना ‘धृ’ धातु से हुई है जिसका अर्थ धारण करने योग्य या हमारे लिए उपयुक्त उत्तरदायित्व, कर्तव्य, विचार, और कर्म है। उदाहरणार्थ आत्मा का धर्म भगवान से प्रेम करना है। यह हमारे अस्तित्व का मुख्य सिद्धान्त है। स्व उपसर्ग का अर्थ ‘स्वयं’ है। इस प्रकार स्वधर्म हमारा निजी धर्म है। जो धर्म हमारे जीवन के संदर्भ, स्थिति, परिपक्वता और व्यवसाय पर लागू होता है और जैसे-जैसे हम आध्यात्मिक रूप से उन्नत होते हैं तब हमारे जीवन के संदर्भो में परिवर्तन आने पर हमारा स्वधर्म भी परिवर्तित हो सकता है। श्रीकृष्ण अर्जुन को उसके स्वधर्म का पालन करने के लिए कहते हुए उसे समझा रहे हैं कि वह अपने क्षत्रिय कुल के धर्म का पालन करे और इसमें कोई शिथिलता प्रदर्शित न करे ताकि कोई दूसरा इसका अनुचित लाभ न उठा सके।
Payal shopping akshaya tritiya ke liye 🥰
Pyare lala ke liye pyara sa gift ❤️ Thanks @pittaraa for this beautiful customised earthen mug ❤️and planter
श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°20 श्रीराधिके सुरतरङ्गिणि दिव्यकेलि कल्लोलमालिनिलसद्वदनारविन्दे । श्यामामृताम्बुनिधि सङ्गमतीव्रवेगिन्यावर्त्तनाभि रुचिरे मम सन्निधेहि ॥20।। हे दिव्यकेलि-तरङ्गमाले! हे शोभमान् वदनारविन्दे ! हे श्रीश्यामसुन्दर-सुधा-सागर-सङ्गमार्थ तीव्र वेगवती ! हे रुचिर नाभिरूप गम्भीर भंवर से शोभायमान् सुरत-सलिते ! ( मन्दाकिनि रूपे ! ) हे श्रीराधिके ! आप मुझे अपना सामीप्य प्रदान कीजिये।
भगवद गीता: अध्याय 3, श्लोक 36 अर्जुन उवाच | अथ केन संयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुष: | अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिवनाम: अर्जुन ने पूछा: किसी व्यक्ति को न चाहते हुए भी, मानो बलपूर्वक, पाप कर्म करने के लिए क्यों प्रेरित किया जाता है? “कौन सी शक्ति हमें इस उच्च आदर्श तक पहुँचने से रोकती है? क्या चीज़ किसी को राग और द्वेष के आगे झुकने पर मजबूर करती है?” हम सभी के पास एक विवेक होता है जो पाप करते समय हमें पश्चाताप का अनुभव कराता है। विवेक इस तथ्य पर आधारित है कि ईश्वर सद्गुणों का निवास है, और उसके अंशों के रूप में, हम सभी में सद्गुणों और अच्छाई के प्रति एक सहज आकर्षण है। अच्छाई जो आत्मा का स्वभाव है, अंतरात्मा की आवाज को जन्म देती है। इस प्रकार, हम यह बहाना नहीं बना सकते कि हम नहीं जानते थे कि चोरी, ठगी, अपमान, जबरन वसूली, हत्या, उत्पीड़न और भ्रष्टाचार पापपूर्ण गतिविधियाँ हैं। हम सहज रूप से जानते हैं कि ये कार्य पाप हैं, और फिर भी हम ऐसे कार्य करते हैं, जैसे कि कोई मजबूत शक्ति उन्हें करने के लिए प्रेरित करती है। अर्जुन जानना चाहता है कि वह प्रबल शक्ति क्या है।
Beautiful summer collection from @madhvagopika_creation02
Prandhan Shri Radharaman lalju ke 482 Prakatya mahotsav ki aap sabhi ko mangal badhai ❤️
शरदुदाशये साधुजातसत्सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा । सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका वरद निघ्नतो नेह किं वधः ॥2॥ हे हमारे प्रेम पूर्ण ह्रदय के स्वामी ! हम तुम्हारी बिना मोल की दासी हैं। तुम शरदऋतु के सुन्दर जलाशय में से चाँदनी की छटा के सौन्दर्य को चुराने वाले नेत्रों से हमें घायल कर चुके हो । हे हमारे मनोरथ पूर्ण करने वाले प्राणेश्वर ! क्या नेत्रों से मारना वध नहीं है? अस्त्रों से ह्त्या करना ही वध है।।
Utthapan bhog seva 😍watermelon juice 😍 Earthen mug from @pittaraa
Utthapan seva ❤️
भगवद गीता: अध्याय 3, श्लोक 38 धूमेनाव्र्यते वह्निर्यथादर्शो मलेन च | यथोलबेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदामावृतम् जिस प्रकार आग धुएं से ढकी होती है, दर्पण धूल से ढका होता है, और भ्रूण गर्भ से ढका होता है, उसी प्रकार व्यक्ति का ज्ञान इच्छा से ढका होता है। क्या सही है और क्या गलत है इसका ज्ञान विवेक कहलाता है। यह विवेक बुद्धि में रहता है। हालाँकि, वासना इतनी प्रबल शत्रु है कि यह बुद्धि की भेदभाव करने की क्षमता को धूमिल कर देती है।इसलिए, हम अपनी अनिश्चित स्थिति को भूलकर, इंद्रियों के अस्थायी आनंद का आनंद लेने में लीन रहते हैं। श्री कृष्ण कहते हैं कि यह इस प्रकार की वासनात्मक इच्छा है जो हमारी विवेक की शक्ति को ढंकने के लिए जिम्मेदार है।
Happy 5 mnth pyare Raja beta kunj ❤️
❤️श्री राधावल्लभो जयति ❤️ ❤️ श्री हित हरिवंश चंद्रो जयति❤️ 551 वा हितोत्सव ( प्राकट्य उत्सव) की आप सभी रसिक प्रेमी जनों को बधाई चरन सरन हरिवंश की , जब लगि आयौ नाहि। नव निकुंज निजू माधुरी, क्यौ परसे मन माहिं श्री वृंदावन सतलीला श्लोक २
यल्लक्ष्मी शुक नारदादि परमाश्चय्र्यानुरागोत्सवैः प्राप्तं त्वत्कृपयैव हि व्रजभृतां तत्तत्किशोरी-गणैः । तत्कैंर्य्यमनुक्षणाद्भुत रसं प्राप्तुं धृताशे मयि श्रीराधे नवकुञ्ज नागरि कृपा-दृष्टिं कदा दास्यसि ॥ – श्री हित हरिवंश महाप्रभु, श्री राधा सुधा निधि (85) हे नव- कुञ्ज नागरि ! मैं आपके उस कैंकर्य प्राप्ति की आशा को धारण किये हुए हूँ जिससे क्षण-क्षण में अद्भुत रस की प्राप्ति होती है और जिसे उन अनुराग-उत्सव मयी ब्रज-किशोरी गणों ने प्राप्त किया था, जिन ब्रजांगनों के अनुराग-उत्सव की लालसा लक्ष्मी, शुक, नारद आदि को भी रहती है। हे श्रीराधे ! मेरे लिये आप अपनी उस कृपा-दृष्टि का दान क्या कभी करोगी?